Tuesday, April 8, 2008

लोगों का जुमला


काली रात में देखा था मंज़र पहले भी,

दीन के उजियारे में, फ़कत, पहली बार देखा है।

यूं तो जगमगाती थी रौशनी तब भी,

सूरज के चौबारे में, खीची आज रेखा है।

जगह की पहचान ढली, समय की ताल में,

लोगों का जुमला मगर,

जैसा तब था, अब भी वैसा है।

बतियाते बेसबब, प्रकाश में,

सांझ की परछाई में,

जैसे रहे शहर की धूल मिट्टी में,

पहाड़ की वादी में भी, महकमा वैसा है।

इनका शायद कसूर नही,

दुनिया का रीवाज़़ ही बहकना है।

सच्चाई मुर्झाए शब-ऐ-तन्हाई में,

झूठी परतों को दीन में भी महकना है।

बनते बीगड़ते जीवन काल में,

सदियों से यही कला है।

है सोये ज़मीर का बोलबाला,

और कबीर, निरर्थक, नीराधार चला है।

An every day


A long tiresome sultry day
That time of the year
Pallid, humid month of May.

I bask in the shade of a tree
Birds and flowers, go about
Rehearsing their daily spree.

My time has stopped, eternity asunder
I should be working
Instead, walk on the hill, in shameless lumber.

The sun buries itself like everyday
I stop by the spring
The winds, it seems, they pray.

The night is dark, it does no wrong
I sleep sweet, sleep deep
Till dawn, Yet, wakes me along.

Wednesday, March 19, 2008

'एक' सुख

है हाथ मेरे कुछ नही ,
मैं अकेला, बेजान, निस्वप्न ।
दुखों की पोटली ढोता , एक मैं ।
है अन्दर सब खाली ,
बाहर निरी कंगाली ।
तो आज अचानक , यह सुख कहाँ से आया ।

एक अकेला मैं, कबसे रहा अकेला ,
ना समाज का हुआ, ना प्यार का, ना किसी काम का ।
परजीवी का जीवन मेरा, 'मर गया हूँ, कहने लगा ।
जाने कैसे, प्रकृति ने एक मोड़ बदला ,
जीवन का एक अंकुर, मेरे घर फूट चला ।

क्या यह जाना कभी ,
कुछ ना होना भी 'एक' सुख दे सकता है ।
उस सुख में, उल्लास नही ,
चाहत की पूर्णता नही ।
कुछ है, तो एक सूक्ष्म, सहज, निर्मल शांति ।

बोझल साँसें बनी हमराही, बच्चों से एहसास ,
हस्ते, रोते, इधर उधर चहकते ।
नाकामी हर सुबह काम पर जाने लगी ,
दुनियादारी सा, कुछ अंदरूनी सिलसिला हुआ शुरू ,
स्मृतियों का परिवार, एक मेरे आँगन बस चला ।

Wednesday, March 12, 2008

'सबसे खतरनाक होता है, हमारे सपनो का मर जाना'


'सबसे खतरनाक होता है, हमारे सपनो का मर जाना' । ऐसा मैं नही कहता, पंजाबी के प्रसिद्ध कवि 'पाश' कह गए। पर मैंने भी इस वाक्य को निजी तौर पे जिया है, आत्मसाथ किया है । सपने यूं तो , कई हो सकते हैं, सफ़र का सपना , हमसफ़र का सपना , आशाओं का सपना , निराशाओं का सपना , अलग हटके कुछ कर दिखाने का सपना , दुनिया की अन्यायों को खत्म करने का सपना , दुनिया की सुन्दर्ताओं को अपनाने का सपना । और अगर ज़्यादातर की बात करें तो पैसे कमाने का सपना , घर बनाने का सपना , सुशील जीवन साथी का सपना, वगेरह । सपने वह भी हैं जो दिल से उपजते हैं , और वह भी जो समाज हमपर लाद्ता है । पर सच तो यह है , हम सब ही सपने देखते हैं , और उन्हें पूर्ण करना चाहते हैं , 'किसी भी कीमत पर' ।

जहाँ पर 'हर कीमत' की बात आ जाती है, वह लोग तो अपने सपने पूर्ण कर ही लेते हैं , क्योंकि उनके सपनों की कोई अंदरूनी प्रेरणा नही होती , वह होते हैं सपने ख़ुद को स्वीकार्योग्य अभ्यासों में ढालने के लिए , दुनिया में अपनी जगह बनाने के लिए । सो वह दुनियादारी की कीमतों पर उसे दुनियादारी की सहायता से पा ही लेते हैं।

पर उनके सपनो का क्या , जो हैं हीं दुनियादारी के असूलों के विपरीत , जो तोड़ना चाहते हैं उन नियमों को जो हमें बाँधना चाहते हैं , अपने ही जैसे ; जो रोकते हैं , हमारे वास्तविक विचारों को , खरे ख्यालों को , मदहोश एहसासों को , अपने ख़ुद के ज़ोर पर ढलने से ।

क्या आपको कभी मौत आई है ? मुझे आई है , और एक नही अनेक मौतें । क्योंकि जब जब हमारे सपने मरते हैं , उनके साथ हमारी भी एक मौत हो जाती है । यह मौत बहुत दुखदायी होती है । मेरे कोई बच्चे नही हैं , पर शायद यह दर्द उतना ही हो , जब हो हमारे एक बच्चे की मौत । भगवान् ना करे ऐसा किसी के साथ हो , पर अपने बच्चे की मौत पर दुनिया शोक मनाती है , दुःख में करीबी साथ होते हैं । लेकिन जब होती है एक सपने की मौत तो किसी को कोई ख़बर नही मिलती , कोई ना आता शोक जताने , दुःख में साथी बनने । ऐसे में एक ही साथिन , अपने नियम से निसंदेह आ जाती है , और वह है उदासी । होता है अन्दर एक खालीपन , जो तड़पाता है , रुलाता है , डराता है , दुखों की नदियों में सैर कराता है। और शायद ज़्यादा घबराहट में ही हम निकल पड़ते हैं , एक नए सपने के साकार होने की उम्मीद की ओर । शायद एक बच्चे का साथ दूसरे की जुदाई का ग़म कुछ कम कर सके ।

ना जाने क्यों , फिर हो जाती है उस सपने की भी मौत । क्या करें , हमारे कोई भी सपने , दुनिया के नियम से जो नही चलते । और फिर आता है समय , ऐसी कई मौतों के बाद , जब नही होती किसी सपने की आस । और इस बार कोई घबराहट , कोई डर , कोई तड़प नहीं होती । कितना खतरनाक होता है वह मंज़र ।

तब याद आती है , पाश की कही बात , और उनकी कविता जो पहले से समझ में आती थी , पर अब साथ में जी भी जाती है । (और मज़ाकिया बात यह की उनकी कविता का संदर्भ है कुछ अलग मेरे यहाँ पर लिखे विचारों से) । अन्दर सब ख़त्म हो जाता है , ना आशा होती है , ना निराशा , लोग-बाग़ आपके इर्द-गिर्द हस्ते हैं , और आप बस एक हलकी मुस्कराहट लिए बैठते हैं ।

उन खुशमिजाज़ोन के सपने कुछ पूरे हो गए , और जो नही , जल्द ही हो जायेंगे ।

हम होते हैं अकेले , चाहे भीड़ में , चाहे घर पे । होते हैं संवाद , केवल उदासी से । हम में से कुछ को पछतावा भी खल आता है , क्यों ना चले नियमों से , ऐसी सोच भी कभी कभी डगमगाती है । क्यों जिया ऐसा जीवन , बात बहुत कम , पर हलकी सी कचोट जाती है ।

लेकिन वापसी के सारे रास्ते बंद हो गए , खुले होते तो भी ना लेता उन्हें । अगर पूर्ति ना हुई एक भी आस की तो क्या , यह तो ज्ञात है , जो है , है अपना निर्णय । गर नही मिला कुछ भी हाथ में तो क्या , उपजाया तो उन्हें अपने खयालों में । अब एक प्रेत वास है तो क्या , मन में कभी सबसे सुंदर मानस के वास की आकांक्षाएं तो थीं । अब है अन्दर एक मरुस्थल , फिर भी जिए जा रहे है । आख़िर क्यों...

शायद है एक नए सपने की तलाश , जो हो समाज के कार्यक्रम से विपरीत , जो हो अब तक का सबसे खतरनाक सपना । इतने सालों के धैर्य ने दिया है और बड़े झटकों को झेलने का बल । तृष्णा फिर जागेगी , उल्लास फिर आएगा , उमंग फिर होगी खयालों में , एक नए सपने की पूर्ति की आस में...

और उसे फिर बिखरते देख , सहने के लिए परस्पर तैयार मेरा अन्दर ...

Tuesday, March 11, 2008

Born Anew

They say, they have arrived .

I never have, I never will ,

How can I, I'm an artist .


It's in my nature to find more ,

To constantly seek, rigorously explore .

Nothing's in my hands to reach there ,

Except to just persist and persevere .


I was born once .

Yet I make it a regular practice ,

To be born again ,

And die a thousand deaths .

मेरा बड़ा ज़ुल्म...

मेरा ज़ुल्म ना छोटा, के बहुत बड़ा है ,
ऐ अज़ीज़ों, मुझको प्यार करना ना आया ।

कुछ की कोशिशें, दिल लगाने की इबादत ,
ताउम्र तवील रातें, है तन्हाई की आदत ।
सुर्ख पाक़ हुस्न-ए-दिलारा रास ना आया ,
शरीक-ए-हयात-ए-ख्वाब मुझको ना भाया ।

उसने किया प्यार, बेइंतहा निभाया ,
दर्द ही दमसाज़ हुआ, दुख ही सरमाया ।
जला उसका दिल, मोहब्बतें राख हुईं ,
कुचली आहें पनपी, तल्खी-ए-अय्याम हुईं ।

दिलकश हुस्न ने खून-ए-दिल हथियार चलाया ,
मेरा बड़ा ज़ुल्म, क़यामत-ए-बाज़ार ले आया ।
जले ज़ार ज़ार, दिलजले की आग में ,
ना ज़मीर, ना वजूद, ज़िल्ल्तों के राग में ।

बेपाक़ नस्ल, गलाज़ते-ए-पैदाइश हो गया ,
गन्दा खून, बदबूदार जिस्म-ए-नुमाइश हो गया ।
थूको मुझपे, थोड़ा इल्ज़ाम तो लगाओ ,
कुछ मेहनत करो, जायज़ सज़ा तो दिलाओ ।

के मेरा ज़ुल्म ना छोटा, बहुत बड़ा है ,
ऐ अज़ीज़ों, मुझको प्यार करना ना आया ।

क्या करते हो ?

जान पहचान का पहला सवाल,

क्या करते हो ?

लिखते हो, कवी हो,

पर क्या करते हो ?


अब क्या कहें, कुछ कोशिश तो करें:


दुनियादारी से कटा मेरा सवेरा ,

गुमनाम पहर का गुमनामी बसेरा ,

कुछ ना करने की कला में माहिर ,

एक बेकार हूँ मैं ।


गिरते सब्ज़ पत्ते, आवाज़ हूँ सुनता ,

मैली धुप है, धूमिल बातें करता ,

रफ़तारी ज़िन्दगी में पीछे छूटा ,

एक बेकार हूँ मैं ।


सब दौड़ रहे हैं अव्वल आयें ,

कुछ तिगडम करें, पीछे रह ना जाएं ,

थकी उम्मीदों का पहला वारिस ,

एक बेकार हूँ मैं ।


कभी मुझपे भी कुछ आस टिकी थी ,
कुछ कर जायेगा, बात सुनी थी ,
प्रयास की शिला से डगमगाता ,
एक बेकार हूँ मैं ।

न ज़माने का प्यार मिला, न रुसवाई ,

न जान को कोई खतरा, न मान पे ठेस आई ,


हम जैसों की खबर लगाओ ,

एक नज़र इधर भी बढाओ ,

अपनी आँखों में गिरा हुआ,

एक बेकार हूँ मैं ।

Sunday, March 9, 2008

जीवन का सवाल


चाँद ने कहा , तू कौन है ,
ज़मीं पे खड़ा , आसमां से जुड़ा ,
बहते शब-ओ-सहर में कुछ बहता हुआ ।

राह ने कहा , कहाँ तेरी दिशा ,
साँस की धड़कन , टहलती बिन सरगम ,
झील की नईया , सिरकती बिन खिवईया ।

मौसम ने कहा , कैसी तेरी खिज़ा ,
कलियाँ हुई बेरंगी , बसंती पेड़ हैं झड़ते ,
हुआ आँगन सूखा सूरज, बाहर मेहा बरसते

शब्द ने कहा , क्यों मौन है ,
लफ्ज़ हुए बेमानी , अक्षर गए गुम ,
है सोच पे पाबंदी , एहसास कुछ नम ।

अल्लाह ने कहा , ये कब हुआ ।
मन के कसेमन से , एक आह ने किला पार किया ,

कहाँ क्यों , कब कौन कैसे ,
जीवन का सवाल ही , जवाब हो गया ।


क़ब्र यादों की

हर ख्वाइश का अंजाम नही होता ,
मोहब्बत में मुकम्मल मकाम नही होता ।
दिल-ओ-दर्द में वक्त ही अकेला है ,
खालीपन के खालीपन में यादों का मेला है ।

देखते ही देखते झुर्रियां बढ़ जाएँगी ,
पुरानी थम के कुछ नई गढ़ जाएँगी ।
वक्त के कठ्गारे में सब साथ छोड़ जाएँगे ,
जी कर जो जीवन ना समझें बाँझ ही सो जाएँगे ।

रिश्ते औदे आराम-ओ-ख़ास ,
कुछ भी तो ना रह जाएगा ,
क़ब्र में तेरी, ज़मीं के अन्दर,
यादों का पौधा आएगा ।

उन यादों की जड़ों से बचना ,
ख़ुद को ना उलझाना तू ।
प्यार समझना, प्यार ही करना ,
ख़ुद से ख़ुदा को पाना तू ।

साँप सीढ़ी


साँप से बचकर सीढ़ी चढ़ गए ,
ग्यारह में वह रम गई ।

करती बातें वह फूलों से ,
पेड़ की शाखाएं सहलाती ।
हाथी देख दौड़ कर जाती ,
केले और बिस्किट वह खिलाती ।

उसकी शाम कभी ना आए ,
दिन में ही वह दिल बहलाए ।
जिसका सूरज ढल गया है ,
उसकी रात कभी ना आए ।

दिल में एक छोटा बच्चा है ,
सो कर जाने कहाँ पड़ा है ।
लुका छिपी के इस अवसर में ,
आओ उसको ढूंड के लायें ।

उसका बचपन अब भी देखो ,
खिल खिल करता झूम रहा है ।
ठंडी सागर की रेतों पे,
अब भी कुछ कुछ गूंद रहा है ।

जीवन के इस रहन सहन में ,
पहले सी पहचान नही है ।
हथियारों की फैक्ट्री में एक ,
बच्चों का उद्यान बनायें ।

कुछ लिख पाऊँगा... कभी जाना ना था।

हम इंसान काफ़ी पेचीदा नसल के मालूम होते हैं। हम में अच्छे और बुरे, दोनों की हदें मौजूद हैं। जैसे एक भव-संसार हमारे बाहर, उतना ही अन्दर। सोच है, भाव हैं, एहसास हैं। इन एहसासों को परिभाषित करना मुश्किल है, क्योंकि हर एहसास से कई लड़ियाँ जुड़ी हैं, जो एक family tree की तरह अलग अलग वेश में, बहुमुखी ढंग से, कई दर्जों में, हमपर अपना प्रभाव छोड़कर इन एहसासों को जन्म देती हैं।

कुछ दस साल पहले मैंने अपने अंदरूनी और बहरी जीवन के सवालों की खोज में पहला कदम रखा। कदम फिर थमे ही नही। करीब एक साल हुआ, मेरे कई सालों के अंदरूनी अनुभवों ने, बहुमुखी ढंग और वेश में, कई दर्जों में मुझपर ऐसा प्रभाव डाला, जाने कैसे मैंने पनपे एहसासों को कलम के ज़ोर पे उतारा।

एक विचित्र बात और हुई। यूँ तो हिन्दी मेरी मात्र्भाषा है पर कुछ globalized भारत के दोष पर और कुछ अंग्रेज़ी भाषित साहित्य के आत्मसाथ होने पर, अंग्रेज़ी एक तरह से मेरी पहली भाषा बन गई। मेरा अधिकतम सोचना , बातचीत करना इसी भाषा के संयोग से हुआ। पर विचित्र यह, की एक साल पहले जब कलम को कागज़ पे चलाया तो उसने हिन्दुस्तानी भाषा को अपना माध्यम चुना। मुझे बहुत अच्छा लगा, एक अपनापन भी महसूस हुआ। कुछ भावों और एहसासों को माँ की बोली ही परिणाम दे सकती है, यह ज्ञात हुआ।

कठिनाईयां भी बहुत आई, मेरे शब्दकोष का शस्त्रागार विस्मित एवं हल्का जान पड़ा। अन्दर उबलते सोच-विचारों का, दिल से निकलती सूक्ष्म आहों का बाहरी बहाव, कुछ थम थम कर आगे बड़ा। मैंने कभी किसी हिन्दुस्तानी के ज्ञानी से अपनी लेखनी का विश्लेषण नही कराया, और यह आज भी ऐसा ही है। यह भी नही मालूम जो थोडा बहुत है, वह कितना सही। स्थिति पेचीदा हुई जब लेखन के माध्यम में, कविता का माध्यम और जुड़ गया। ना कविता की grammar की समझ, ना लेखन के grammar की समझ और ना भाषा के grammar की समझ की नासमझी में मैं अकेला आगे बढ़ता गया। कुछ मित्रों के साथ एक-दो संवाद बाटें। उनके उत्साह और प्रोत्साहन से साहस बंधा। ऐसे में मेरे परिचित मलय से अच्छा सुझाव आया। उन्होंने मुझे अपने लेखन को blog करने को कहा, तो मैंने भी अपने सुरक्षित संसार से बाहर आने का ढानढस बंधाया। Google का transliteration software कठिनाई के साथ, काम का साबित हुआ। और शुरू हो रहा है एक नया सफ़र, जो उम्मीद है आगे बढ़ेगा ,

चाहे थम थम कर ही सही...

Saturday, March 8, 2008

अगर तू... तू ना होता।

अगर तू, तू ना होता ,
महकता कारवां-ए-सफ़र ना होता ।

सम्चित्त मज़ारों में, रंगो का दखल ना होता ,
रोज़मर्रा ज़िंदगी में, एक दूसरा अमल ना होता ,

अगर तू, तू ना होता ।

महकते कारवां में अब दर्द का बसेरा है ,
खिलखिलाती धूप में कुछ शाम का अँधेरा है ।

यूं तो फिर ज़िंदगी के पहल पे लौट जाऊँ ,
ना ग़म ना खुशी के समझौते में सुलझ जाऊँ ।
नासमझ दर्द में पर सुकूं है घनेरा
अँधेरी शाम का डूबता सूरज है सवेरा ।

भरी आंखों की ये अनकही बातें ,
जीवनार्थ पेचीदा सवाल गुनगुनाते ।
कैसे छिपी शोबा से नैन मूँद लेता ,
हिचकिचाते मोड़ों पे राह छोड़ देता ।

यूं तो पहली ज़िंदगी का दो पहर ना होता ,
अधूरे सफ़र का अधूरा हमसफ़र ना होता ,

ना पलटता कारवां ,

ना नया असर होता ,

अगर तू ... तू ना होता ।

Friday, March 7, 2008

पहली कविता

मेरा दरवाज़ा खटखटाता नही
मेरे घर, अब कोई आता नही ।

कोई ना कहता, बात करो मुझसे ,
ख़ुद को बतलाता, मैं प्यार करूं तुझसे ।
कोई ना मेरा नाम दोहराता ,
हाथ से किताब, ना कोई ले जाता ।
बड़ी बातें अब कोई भूल जाता नही ,
छोटी बातों पे चिढचिडाता नहीं ।

सुन्दरता में रमी, पल पल की सौगात ,
प्यारे एहसास, फड़फड़ाते जज़्बात ।
कहाँ गई वह खामोशी, वह दो बदन ,
ना आज, ना कल, उस पल में मगन ।

जहाँ था पहले, अब भी वहीं रहूँगा ,
घर बैठ, कुछ और कविताएँ गढूंगा ।
थी जहाँ पहले, वह घर छोड़ जायेगी ,
मेरी आंखों के आगे, तेरी डोली उठ जायेगी ।

यादें ढल जाएँगी, खुशबू भी भूल जायेगी ,
एक नज़र प्यार की, दिल में गडी रह जायेगी ।
गहन आँखें ही, चलती फिरती मिल जाएँगी ,
जिनमे जिए थे, अजनबी सी आगे बढ़ जाएँगी ।

जीवन में अक्सर ऐसा होता है ,
ज़ीस्त-ऐ-अरमान सपनों का पतन होता है ।
इस दर्द में भी कुछ सीख छिपी है ,
अपना लो उसको, ताबीद वहीं है ।

शून्य से उठकर चलना सीखो ,
ख़त्म जो हो गया, फिर से सींचो।
दुनियादारी का प्रतिदिन लौट आएगा ,
ग़म-ओ-दर्द पे, रहत का फेरा आएगा ।

हस्ते हस्ते, एक लम्हा याद आएगा ,
उसको प्यार से रखना, अल्लाह भी नीर बहायेगा ।

सब कुछ पहला सा होगा परस्पर ,
एक बात रह जायेगी मगर ।

मेरा दरवाज़ा कोई ना खटखटाएगा ,
अब मेरे घर, कोई ना आएगा ।