काली रात में देखा था मंज़र पहले भी,
दीन के उजियारे में, फ़कत, पहली बार देखा है।
यूं तो जगमगाती थी रौशनी तब भी,
सूरज के चौबारे में, खीची आज रेखा है।
जगह की पहचान ढली, समय की ताल में,
लोगों का जुमला मगर,
जैसा तब था, अब भी वैसा है।
बतियाते बेसबब, प्रकाश में,
सांझ की परछाई में,
जैसे रहे शहर की धूल मिट्टी में,
पहाड़ की वादी में भी, महकमा वैसा है।
इनका शायद कसूर नही,
दुनिया का रीवाज़़ ही बहकना है।
सच्चाई मुर्झाए शब-ऐ-तन्हाई में,
झूठी परतों को दीन में भी महकना है।
बनते बीगड़ते जीवन काल में,
सदियों से यही कला है।
है सोये ज़मीर का बोलबाला,
और कबीर, निरर्थक, नीराधार चला है।