है हाथ मेरे कुछ नही ,
मैं अकेला, बेजान, निस्वप्न ।
दुखों की पोटली ढोता , एक मैं ।
है अन्दर सब खाली ,
बाहर निरी कंगाली ।
तो आज अचानक , यह सुख कहाँ से आया ।
एक अकेला मैं, कबसे रहा अकेला ,
ना समाज का हुआ, ना प्यार का, ना किसी काम का ।
परजीवी का जीवन मेरा, 'मर गया हूँ, कहने लगा ।
जाने कैसे, प्रकृति ने एक मोड़ बदला ,
जीवन का एक अंकुर, मेरे घर फूट चला ।
क्या यह जाना कभी ,
कुछ ना होना भी 'एक' सुख दे सकता है ।
उस सुख में, उल्लास नही ,
चाहत की पूर्णता नही ।
कुछ है, तो एक सूक्ष्म, सहज, निर्मल शांति ।
बोझल साँसें बनी हमराही, बच्चों से एहसास ,
हस्ते, रोते, इधर उधर चहकते ।
नाकामी हर सुबह काम पर जाने लगी ,
दुनियादारी सा, कुछ अंदरूनी सिलसिला हुआ शुरू ,
स्मृतियों का परिवार, एक मेरे आँगन बस चला ।
Wednesday, March 19, 2008
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2 comments:
अपने मनोभावो को बहुत सुन्दर ढंग से रखा है।बधाई।
क्या यह जाना कभी ,
कुछ ना होना भी 'एक' सुख दे सकता है ।
उस सुख में, उल्लास नही ,
चाहत की पूर्णता नही ।
कुछ है, तो एक सूक्ष्म, सहज, निर्मल शांति ।
बहुत सुन्दरता से मन के भावों को उकेरा है. बधाई.
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