Thursday, March 6, 2008

क़लम के कुछ सिपाही...

दिल से निकल जाती जो बात,
तो बात कहाँ होती ।
तन्हाई में ना आती जो याद,
तो मुलाक़ात कहाँ होती ।

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दर्द खंजर सा,

सीने में सना, मालूम होता है ।
ज़रा लहू टपके,

जाने तो सही, इश्क़ फरमाया था ।

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ना कवि हुआ तो क्या अतुल,
कवियों से मिजाज़ तो हैं ।
दिल फ़रेब की लानत नही,
आशिकों से बरबाद तो हैं ।

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गर कलम चलाने से अतुल,
गीतकार बन जाता ।
ख़ुद के कहलाने से इंसा ,
कलाकार हो जाता ।

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रात कलम , काली स्याही चढाई ,
जाने क्यों सुबह होते ,
कागज़ पे लाल उतर आई ।

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घर मेरे जो आग लगी है ,
मुझको भी बतला दो ।
माना कुछ ना कर पाऊँगा ,
ख़बर तो भिजवा दो ।

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ज़ौके नाज़ होते थे तुझसे ,
कैसे वक़्त बदल जाता है ।
पहले थी तू रहगुज़र मुझसे ,
अब ये अकेला खनखनाता है ।

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जो होता है ज़ूकाम ,
प्यार भी आता होगा ।
रात जो होती ज़ार ज़ार ,
बेक़रार भी आता होगा ।

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अब जो प्यार नहीं ,
तू ना मिला कर मुझसे ।
तेरी आँखों में वह गर्माइश नहीं ,
मेरी यादों में तो है ।

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था घर पूरे दिन ,
तेरी याद भी आई ,
क्या तुझे ना आई ?

कम्बल में एक बाल मिला ,
लम्बाई ने कहा, तेरा है ,
उठा उसे छोटी ऊँगली पे बाँध दिया ,
क्या तुझे कुछ ना मिला ?

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I cease to exist ,
Yet I breathe .

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Appear again, oh beautiful child .
The sparrows beckon you again ,
March along their gently gains .
The sun doesn't set forever ,
The river flows till eternity .
Affectionate blossoms await thee love ,
So hold on ,
Somewhere ahead is that little white dove .

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1 comment:

Ashish Maharishi said...

जनाब कुछ तो बात है आपकी रचना में,