Saturday, March 8, 2008

अगर तू... तू ना होता।

अगर तू, तू ना होता ,
महकता कारवां-ए-सफ़र ना होता ।

सम्चित्त मज़ारों में, रंगो का दखल ना होता ,
रोज़मर्रा ज़िंदगी में, एक दूसरा अमल ना होता ,

अगर तू, तू ना होता ।

महकते कारवां में अब दर्द का बसेरा है ,
खिलखिलाती धूप में कुछ शाम का अँधेरा है ।

यूं तो फिर ज़िंदगी के पहल पे लौट जाऊँ ,
ना ग़म ना खुशी के समझौते में सुलझ जाऊँ ।
नासमझ दर्द में पर सुकूं है घनेरा
अँधेरी शाम का डूबता सूरज है सवेरा ।

भरी आंखों की ये अनकही बातें ,
जीवनार्थ पेचीदा सवाल गुनगुनाते ।
कैसे छिपी शोबा से नैन मूँद लेता ,
हिचकिचाते मोड़ों पे राह छोड़ देता ।

यूं तो पहली ज़िंदगी का दो पहर ना होता ,
अधूरे सफ़र का अधूरा हमसफ़र ना होता ,

ना पलटता कारवां ,

ना नया असर होता ,

अगर तू ... तू ना होता ।

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