अगर तू, तू ना होता ,
महकता कारवां-ए-सफ़र ना होता ।
सम्चित्त मज़ारों में, रंगो का दखल ना होता ,
रोज़मर्रा ज़िंदगी में, एक दूसरा अमल ना होता ,
अगर तू, तू ना होता ।
महकते कारवां में अब दर्द का बसेरा है ,
खिलखिलाती धूप में कुछ शाम का अँधेरा है ।
यूं तो फिर ज़िंदगी के पहल पे लौट जाऊँ ,
ना ग़म ना खुशी के समझौते में सुलझ जाऊँ ।
नासमझ दर्द में पर सुकूं है घनेरा
अँधेरी शाम का डूबता सूरज है सवेरा ।
भरी आंखों की ये अनकही बातें ,
जीवनार्थ पेचीदा सवाल गुनगुनाते ।
कैसे छिपी शोबा से नैन मूँद लेता ,
हिचकिचाते मोड़ों पे राह छोड़ देता ।
यूं तो पहली ज़िंदगी का दो पहर ना होता ,
अधूरे सफ़र का अधूरा हमसफ़र ना होता ,
ना पलटता कारवां ,
ना नया असर होता ,
अगर तू ... तू ना होता ।
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