Friday, March 7, 2008

पहली कविता

मेरा दरवाज़ा खटखटाता नही
मेरे घर, अब कोई आता नही ।

कोई ना कहता, बात करो मुझसे ,
ख़ुद को बतलाता, मैं प्यार करूं तुझसे ।
कोई ना मेरा नाम दोहराता ,
हाथ से किताब, ना कोई ले जाता ।
बड़ी बातें अब कोई भूल जाता नही ,
छोटी बातों पे चिढचिडाता नहीं ।

सुन्दरता में रमी, पल पल की सौगात ,
प्यारे एहसास, फड़फड़ाते जज़्बात ।
कहाँ गई वह खामोशी, वह दो बदन ,
ना आज, ना कल, उस पल में मगन ।

जहाँ था पहले, अब भी वहीं रहूँगा ,
घर बैठ, कुछ और कविताएँ गढूंगा ।
थी जहाँ पहले, वह घर छोड़ जायेगी ,
मेरी आंखों के आगे, तेरी डोली उठ जायेगी ।

यादें ढल जाएँगी, खुशबू भी भूल जायेगी ,
एक नज़र प्यार की, दिल में गडी रह जायेगी ।
गहन आँखें ही, चलती फिरती मिल जाएँगी ,
जिनमे जिए थे, अजनबी सी आगे बढ़ जाएँगी ।

जीवन में अक्सर ऐसा होता है ,
ज़ीस्त-ऐ-अरमान सपनों का पतन होता है ।
इस दर्द में भी कुछ सीख छिपी है ,
अपना लो उसको, ताबीद वहीं है ।

शून्य से उठकर चलना सीखो ,
ख़त्म जो हो गया, फिर से सींचो।
दुनियादारी का प्रतिदिन लौट आएगा ,
ग़म-ओ-दर्द पे, रहत का फेरा आएगा ।

हस्ते हस्ते, एक लम्हा याद आएगा ,
उसको प्यार से रखना, अल्लाह भी नीर बहायेगा ।

सब कुछ पहला सा होगा परस्पर ,
एक बात रह जायेगी मगर ।

मेरा दरवाज़ा कोई ना खटखटाएगा ,
अब मेरे घर, कोई ना आएगा ।

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